[Advaita-l] Actions of Shri Rama questioned after conquering Lanka
Sanju Nath
sanjivendra at gmail.com
Sun Oct 25 20:56:12 CDT 2015
Dear श्री सुनिल जी,
Thank you for the clarification. I have more questions though which arose upon reading the passage:
1. Before the coronation of Vibhisan and after complete victory, why did Shri Rama not go to meet Sita Ma?
The provided answer seems to be Maryada that insists upon Vibhisan bringing Sita to Rama. But Rama asks of the well being of other associates, except Sita.
2. Rama sends Hanuman with message for Sita but refuses to go himself. Was permission of Vibhisan taken to send Hanuman?
3. How did Rama go from forest dweller to Samrat in his behavior, asks Sita. Sita reasons that she would have shown Rama her environment and various helpers.
4. When finally Vibhasan arranges for Sita to be brought royally, Rama asks that she approach him by foot in front of entire court, refusing to accept her. Why?
5. Finally Sita questions in this poem that Ravan didn't violate her modesty, but Rama is doing that now by asking her to get down and walk towards him in front of many strangers as a questionable woman.
6. Of course Agni-pariksha is the most well known of Rama's action which many do not accept. Perhaps Valmiki questioning some of these actions by Rama, as you say, is some comfort...
Anyway, there is an allegorical interpretation - Rama is Brahman, Sita is heart, Mind is Ravan and after vanquishing Mind and senses, Sita is united with Rama. Wondering though if similar explanation is there specifically for the above?
धन्यवाद,
Sanju
> On Oct 25, 2015, at 12:53 PM, Sunil Bhattacharjya <sunil_bhattacharjya at yahoo.com> wrote:
>
> Dear friends,
>
> Whoever had written that piece of Hindi text did mention about Maryada purushottama but forgot that Lord Ram was very well aware of the maryada, that if the king of a country is dead the second king has to be installed immediately. Thus Lord Ram had to think of maintaining the maryada before addressing his personal issue. That became the first priority for Maryada purushottama. Then it was upto the king Vibhishan to hand over Sita, who was a captive in his country and it is understandable that he could not have brought mother Sita, in the same way as she was kept by Ravana. Vibhishana brought Sita to Rama by giving her the highest respect, as required by the protocol and I am sure both Lord Ram and mother Sita appreciated it.
>
> Secondly, Ravana was really not infatuated with Sita. He acted at the earnest request of his dearest sister Surpanakha, who was disgraced by Lakshmana, though not for any unjustifiable reason. To my knowledge Surpanakha insisted that Ravana marries Sita and just avenge the the insult his sister had to bear.
>
> Thirdly, to be fair to Valmiki, he did a sort of protest to Lord Ram, towards the end of the Ramayana, for the treatment meted out to mother Sita.
>
> I shall not go to the other details available in other texts, which is said to have claimed that Mother Sita was in fact the daughter of Ravana, who was to be killed immediately after her birth. The killing was to be done to save Lanka from disaster, as that was predicted from her horoscope, but Mandodari saved her daughter secretly by taking her to king Janaka's garden, where the latter found her and adopted her as his own daughter. Thus Ravana did not know that he was kidnapping his own daughter.
>
> Regards,
> Sunil KB
>
>
>
> On Sunday, October 25, 2015 7:10 AM, Sanju Nath via Advaita-l <advaita-l at lists.advaita-vedanta.org> wrote:
>
>
>
> This long message appeared on the net (in Hindi) and upon reading it, I recalled Swami Paramarthananda's words in one of the lectures that such questions we read in the Puranas and Itihaas can be answered under proper guidance and allegorical vedantic interpretation.
>
> Can someone guide or refer where the appropriate interpretation can be found?
>
> धन्यवाद,
> संजू
>
> मर चुका है रावण का शरीर
> स्तब्ध है सारी लंका
> सुनसान है किले का परकोटा
> कहीं कोई उत्साह नहीं
> किसी घर में नहीं जल रहा है दिया
> विभीषण के घर को छोड़ कर ।
>
> सागर के किनारे बैठे हैं विजयी राम
> विभीषण को लंका का राज्य सौंपते हुए
> ताकि सुबह हो सके उनका राज्याभिषेक
> बार-बार लक्ष्मण से पूछते हैं
> अपने सहयोगियों की कुशल-क्षेम
> चरणों के निकट बैठे हैं हनुमान !
>
> मन में क्षुब्ध हैं लक्ष्मण
> कि राम क्यों नहीं लेने जाते हैं सीता को
> अशोक वाटिका से
> पर कुछ कह नहीं पाते हैं ।
>
> धीरे-धीरे सिमट जाते हैं सभी काम
> हो जाता है विभीषण का राज्याभिषेक
> और राम प्रवेश करते हैं लंका में
> ठहरते हैं एक उच्च भवन में ।
>
> भेजते हैं हनुमान को अशोक-वाटिका
> यह समाचार देने के लिए
> कि मारा गया है रावण
> और अब लंकाधिपति हैं विभीषण ।
>
> सीता सुनती हैं इस समाचार को
> और रहती हैं ख़ामोश
> कुछ नहीं कहती
> बस निहारती है रास्ता
> रावण का वध करते ही
> वनवासी राम बन गए हैं सम्राट ?
>
> लंका पहुँच कर भी भेजते हैं अपना दूत
> नहीं जानना चाहते एक वर्ष कहाँ रही सीता
> कैसे रही सीता ?
> नयनों से बहती है अश्रुधार
> जिसे समझ नहीं पाते हनुमान
> कह नहीं पाते वाल्मीकि ।
>
> राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती
> इन परिचारिकाओं से
> जिन्होंने मुझे भयभीत करते हुए भी
> स्त्री की पूर्ण गरिमा प्रदान की
> वे रावण की अनुचरी तो थीं
> पर मेरे लिए माताओं के समान थीं ।
>
> राम अगर आते तो मैं उन्हें मिलवाती
> इन अशोक वृक्षों से
> इन माधवी लताओं से
> जिन्होंने मेरे आँसुओं को
> ओस के कणों की तरह सहेजा अपने शरीर पर
> पर राम तो अब राजा हैं
> वह कैसे आते सीता को लेने ?
>
> विभीषण करवाते हैं सीता का शृंगार
> और पालकी में बिठा कर पहुँचाते है राम के भवन पर
> पालकी में बैठे हुए सीता सोचती है
> जनक ने भी तो उसे विदा किया था इसी तरह !
>
> वहीं रोक दो पालकी,
> गूँजता है राम का स्वर
> सीता को पैदल चल कर आने दो मेरे समीप !
> ज़मीन पर चलते हुए काँपती है भूमिसुता
> क्या देखना चाहते हैं
> मर्यादा पुरुषोत्तम, कारावास में रह कर
> चलना भी भूल जाती हैं स्त्रियाँ ?
>
> अपमान और उपेक्षा के बोझ से दबी सीता
> भूल जाती है पति-मिलन का उत्साह
> खड़ी हो जाती है किसी युद्ध-बन्दिनी की तरह !
>
> कुठाराघात करते हैं राम ---- सीते, कौन होगा वह पुरुष
> जो वर्ष भर पर-पुरुष के घर में रही स्त्री को
> करेगा स्वीकार ?
> मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ, तुम चाहे जहाँ जा सकती हो ।
>
> उसने तुम्हें अंक में भर कर उठाया
> और मृत्युपर्यंत तुम्हें देख कर जीता रहा
> मेरा दायित्व था तुम्हें मुक्त कराना
> पर अब नहीं स्वीकार कर सकता तुम्हें पत्नी की तरह !
>
> वाल्मीकि के नायक तो राम थे
> वे क्यों लिखते सीता का रुदन
> और उसकी मनोदशा ?
> उन क्षणों में क्या नहीं सोचा होगा सीता ने
> कि क्या यह वही पुरुष है
> जिसका किया था मैंने स्वयंवर में वरण
> क्या यह वही पुरुष है जिसके प्रेम में
> मैं छोड़ आई थी अयोध्या का महल
> और भटकी थी वन-वन !
>
> हाँ, रावण ने उठाया था मुझे गोद में
> हाँ, रावण ने किया था मुझसे प्रणय निवेदन
> वह राजा था चाहता तो बलात ले जाता अपने रनिवास में
> पर रावण पुरुष था,
> उसने मेरे स्त्रीत्व का अपमान कभी नहीं किया
> भले ही वह मर्यादा पुरुषोत्तम न कहलाए इतिहास में !
>
> यह सब कहला नहीं सकते थे वाल्मीकि
> क्योंकि उन्हें तो रामकथा ही कहनी थी !
>
> आगे की कथा आप जानते हैं
> सीता ने अग्नि-परीक्षा दी
> कवि को कथा समेटने की जल्दी थी
> राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या लौट आए
> नगरवासियों ने दीपावली मनाई
> जिसमें शहर के धोबी शामिल नहीं हुए ।
>
> आज इस दशहरे की रात
> मैं उदास हूँ उस रावण के लिए
> जिसकी मर्यादा
> किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से कम नहीं थी ।
>
> मैं उदास हूँ कवि वाल्मीकि के लिए
> जो राम के समक्ष सीता के भाव लिख न सके ।
>
> आज इस दशहरे की रात
> मैं उदास हूँ स्त्री अस्मिता के लिए
> उसकी शाश्वत प्रतीक जानकी के लिए !
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