[Advaita-l] Best way to celebrate Sankara Jayanti
Sunil Bhattacharjya
sunil_bhattacharjya at yahoo.com
Wed May 11 11:49:22 CDT 2016
Dear Sujalji',
Please refer to the verse 6.30 in the Original,Bhagavad Gita, which is the same as the verse 8 in the Kaivalya Upanishad. Vishnu is none other than Shiva / Mahshwara
Regards,
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On Wed, 5/11/16, Sujal Upadhyay via Advaita-l <advaita-l at lists.advaita-vedanta.org> wrote:
Subject: Re: [Advaita-l] Best way to celebrate Sankara Jayanti
To: "Venkatesh Murthy (वेङ्कटेशः सीतारामार्यपुत्रः)" <vmurthy36 at gmail.com>, "A discussion group for Advaita Vedanta" <advaita-l at lists.advaita-vedanta.org>
Date: Wednesday, May 11, 2016, 12:40 AM
Namaste,
Maheshvara is not found in
viShNu sahasranAma, though it has #489
भूतमहेश्वर
bhUtamaheshvara
Even in
gItA, BG 13.23, I didnt find any reference to directly
translating
maheshvara to viShNu
उपद्रष्टाऽनुमन्ता
च भर्ता भोक्ता
महेश्वरः।
परमात्मेति
चाप्युक्तो
देहेऽस्मिन्पुरुषः
परः।।13.23।।
*English translation by Swami Gambhirananda*
13.23 He who is the Witness,
the Permitter, the Sustainer, the Experiencer,
the great Lord, and who is also spoken of as
the transcendental Self is the
supreme
Person in this body.
*Sanskrit commentary by Sri Sankaracharya*
... महेश्वरः,
सर्वात्मत्वात्
स्वतन्त्रत्वाच्च
महान् ईश्वरश्च इति
महेश्वरः।
परमात्मा,
देहादीनां
बुद्ध्यन्तानां
प्रत्यगात्मत्वेन
कल्पितानाम्
अविद्यया
परमः
उपद्रष्टृत्वादिलक्षणः
आत्मा इति परमात्मा।
'सोऽन्तः परमात्मा'
इत्यनेन
शब्देन च
अपि उक्तः कथितः
श्रुतौ। क्व असौ?
अस्मिन् देहे पुरुषः
परः
अव्यक्तात्,
'उत्तमः
पुरुषस्त्वन्यः
परमात्मेत्युदाहृतः
(गीता 15।17)' इति यः
वक्ष्यमाणः।।'क्षेत्रज्ञं
चापि मां विद्धि (गीता
13।2)' इति उपन्यस्तः
व्याख्याय
उपसंहृतश्च, तमेतं
यथोक्तलक्षणम्
आत्मानम् -- ।।13.23।।
*English translation by Swami
Gambhirananda (on Sri Sankaracharya's
Sanskrit Commentary)*
13.23 ... *He is maheSvarah, the great God,
because, as the Self of all and
independent,
He is the great Ruler.He is paramatma, the transcendental
Self,* because He is the Self which has the
characteristics of being the
supreme Witness
etc. of (all) those-beginning from the body and ending
with
the intellect-which are imagined
through ignorance to be the indwelling
Self.
*He is also spoken of, referred to, in the Upanisads as,
with the
words; 'He is the indwelling
One, the paramatma, the transcendental Self.'
Ast reads atah in place of antah.* *So the
translation of the sentence will
be:
Therefore He is also referred to as the transcendental Self
in the
Upanisads.*-Tr. Where is He? The
param purusha who is higher than the
Unmanifest and who will be spoken of in,
'But different is the supreme
Person who
is spoken of as the transcendental Self' (15.17) is in
this
body. What has been presented in,
'...also understand Me to be the Knower
of the field' (2), has been explained (in
next verse) and conclude.
*Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's
Sanskrit Commentary By Sri
Harikrishnadas
Goenka*
।।13.23।।
उसीका फिर साक्षात्
निर्देश किया जाता है --, (
यह आत्मा )
उपद्रष्टा है
अर्थात् स्वयं क्रिया न
करता हुआ पासमें स्थित
होकर देखनेवाला
है। जैसे कोई
यज्ञविद्यामें कुशल
अन्य पुरुष स्वयं यज्ञ
न करता हुआ?
यज्ञकर्ममें लगे
हुए पुरोहित और
यजमानोंद्वारा किये
हुए कर्मसम्बन्धी
गुणदोषोंको
तटस्थभावसे देखता है?
उसी प्रकार कार्य और
करणोंके व्यापारमें
स्वयं न लगा हुआ
उनसे अन्यविलक्षण
आत्मा उन व्यापारयुक्त
कार्य और करणोंको
समीपस्थ भावसे
देखनेवाला है। अथवा
देह? चक्षु? मन? बुद्धि
और आत्मा -- ये सभी
द्रष्टा हैं?
उनमें बाह्य द्रष्टा
शरीर है और उससे लेकर उन
सबकी अपेक्षा
अन्तरतम -- समीपस्थ
द्रष्टा अन्तरात्मा
है। जिसकी अपेक्षा और
कोई आन्तरिक
द्रष्टा न हो? वह
अतिशय सामीप्य भावसे
देखनेवाला होनेके कारण
उपद्रष्टा होता
है ( अतः आत्मा
उपद्रष्टा है )। अथवा (
यों समझो कि ) यज्ञके
उपद्रष्टाकी
भाँति सबका अनुभव
करनेवाला होनेसे आत्मा
उपद्रष्टा है। तथा यह
अनुमन्ता है --
क्रिया करनेमें
लगे हुए अन्तःकरण और
इन्द्रियादिकी
क्रियाओंमें
सन्तोषरूप
अनुमोदनका नाम
अनुमनन है? उसका
करनेवाला है। अथवा यह
इसीलिये अनुमन्ता है
कि
कार्यकरणकी
प्रवृत्तिमें स्वयं
प्रवृत्त न होता हुआ भी
उनके अनुकूल प्रवृत्त
हुआ सा दीखता है।
अथवा अपने व्यापारमें
लगे हुए अन्तःकरण और
इन्द्रियादिको
उनका साक्षी होकर
भी कभी निवारण नहीं
करता? इसलिये अनुमन्ता
है। तथा यह भर्ता
है? चैतन्यस्वरूप
आत्माके भोग और
अपवर्गकी सिद्धिके
निमित्तसे संहत हुए
चेतन्यके आभासरूप
शरीर? इन्द्रिय? मन और
बुद्धि आदिका स्वरूप
धारण करना भी भरण
है और वह
चैतन्यरूप आत्माका ही
किया हुआ है? इसलिये
आत्माको भर्ता कहते
हैं।
आत्मा
भोक्ता है। अग्निके
उष्णत्वकी भाँति
नित्यचैतन्य
आत्मसत्तासे समस्त
विषयोंमें
पृथक्पृथक् होनेवाली
जो बुद्धिकी सुखदुःख और
मोहरूप प्रतीतियाँ
हैं?
वे सब चैतन्य
आत्माद्वारा ग्रस्त की
हुईसी दीखती हैं? अतः
आत्माको भोक्ता कहा
जाता है। आत्मा
महेश्वर है। वह सबका
आत्मा होनेके कारण और
स्वतन्त्र होनेके
कारण महान् ईश्वर
है? इसलिये महेश्वर है।
वह परमात्मा है।
अविद्याद्वारा
प्रत्यक्
आत्मारूप माने हुए जो
शरीरसे लेकर
बुद्धिपर्यन्त (
आत्मशब्दवाच्य
पदार्थ ) हैं। उन
सबसे उपद्रष्टा आदि
लक्षणोंवाला आत्मा परम
( श्रेष्ठ ) है --
इसलिये वह
परमात्मा है।
श्रुतिमें भी वह भीतर
व्यापक परमात्मा है इन
शब्दोंसे
उसका
वर्णन किया गया है। ऐसा
आत्मा कहाँ है वह
अव्यक्तसे पर पुरुष इसी
शरीरमें
है जो कि
उत्तमः
पुरुषस्त्वन्यः
परमात्मेत्युदाहृतः
इस प्रकार आगे कहा
जायगा
और जो
क्षेत्रज्ञं चापि मां
विद्धि इस प्रकार पहले
कहा जा चुका है तथा
जिसकी
व्याख्या
करके उपसंहार किया गया
है।
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