[Advaita-l] Ananda and its manifesatation
V Subrahmanian
v.subrahmanian at gmail.com
Mon Dec 24 05:55:13 EST 2018
A nice article in Hindi on Ananda and its manifestation by Rahul Smartha:
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1998391500236483&set=a.251918044883846&type=3&theater
इह जन्म अथवा पूर्व जन्मों में अनुष्ठित काम्यकर्मजन्य अपूर्व जब
फलप्रदानोन्मुख होता है तो जाग्रत एवं स्वप्नावस्थामें इष्टवस्तु के
संदर्शनजन्य अविद्या की स्थिर, अन्तर्मुखी तामसी वृत्तिविशेष में चैतन्य के
आनन्दस्वरुप प्रतिबम्बित होकर प्रिय-मोद-प्रमोद के रूप में परिणामप्राप्त होती
है । इस मलिनसत्त्वप्रधान अज्ञान की वृत्तिरूप परिणाम एवं तत्प्रतिबिम्बित
चैतन्य के अग्नि एवं तप्त लौहपिण्ड की तरह आध्यासिक सम्बन्धप्रयुक्त तादात्म्य
का नाम ही आनन्दमयकोष है ।
कांक्षित वस्तु के दर्शनलब्ध आनन्द को ' प्रिय ', उस वस्तु की प्राप्ति से
लब्ध आनन्द का नाम ' मोद ' एवं तद्वस्तुसंभोग से लब्ध आनंद का नाम ' प्रमोद '
है - तीनों चिदाभास (प्रतिबिंबित आनंद) के न्यूनाधिक तारतम्यविशिष्ट अविद्या
का वृत्याकार परिणामविशेष है ।
अन्यत्र, तमोगुणप्रधान सत्त्वगुण से उत्थित सुख ' प्रिय ', रजःप्रधान
सत्त्वगुण से उत्थित सुख ' मोद ' एवं सत्त्वगुणप्रधान रजः एवं तमोगुण से
उत्थित सुख को ' प्रमोद ' कहा गया है ।
~ (ब्रह्मसूत्र, न्यायनिर्णय टीका द्रष्टव्य)
जाग्रत एवं स्वप्न में इष्ट की प्राप्ति एवं अनिष्ट का परिहार विषयक चिन्ता के
कारण पुरुष का चित्त प्रायः विक्षिप्त रहता है, जिसका फलस्वरुप वृत्ति स्थिर
एवं अन्तर्मुखी नहीं हो पाती । इसलिए वैषयिक आनन्द में निरन्तर एकरस आनन्द का
अनुभव भी नहीं होता ।
जाग्रत एवं स्वप्न में विषयभोग से परिश्रान्त जीव उक्त दोनों भोगावस्थायों के
हेतुरूप कर्मों के क्षय होनेसे अन्तःकरण की कारणरूप (अज्ञानगत संस्कार रूप) से
स्थिति होनेपर सुषुप्ति अवस्था को प्राप्त होता है । अन्तःकरण के अभाव से
विशिष्टवृत्ति (अहंकारवृत्ति) का अभाव होता है । इसलिए स्मृति की उपपत्ति हेतु
उस काल में केवल अविद्यावृत्ति स्वीकार करनी पड़ेगी । सुषुप्ति में स्थिर
अविद्यावृत्ति से अज्ञानावृत साक्षीचैतन्य, अज्ञान एवं अविद्यावृत्ति में
प्रतिबिंबित (अज्ञानावृत) स्वरूपानन्द - इन तीनों का अनुभव होता है ।
विषयानन्द की तुलना में सुषुप्ति में अनुभूत अज्ञानावृत आत्मानन्द कई गुना
अधिक है, तभी प्रत्येक प्राणी की निद्रा में प्रवृत्ति होती है । जगत् के
सार्वभौम सम्राट समग्र भोग्यवस्तुएं वर्तमान रहते हुए भी निद्रा त्याग कर उनके
भोग में प्रवृत्त नहीं होती । और भोग-निद्रा की इच्छा त्यागकर भी योगी समाधि
के लिए प्रयत्न करते है । प्रवृत्ति एवं निवृत्ति तो अनुकूलज्ञान एवं
प्रतिकूलज्ञानजन्य ही होती है । अतएव इससे प्राणीमात्र के अद्वैतात्मा में
आत्मकामत्व सिद्ध हो जाता है ।
भेदज्ञान का अभाव कैसे आनन्द के आधिक्य में हेतु है, इसपर बृहदारण्यक श्रुति
में एक लौकिक दृष्टान्त है -
परस्पर के प्रति अनुरक्त स्त्री-पुरुष मैथुनक्रिया के समय जिस क्षण में
चरमानन्द (Orgasm) का अनुभव करते है, उस क्षण में पुरुष या स्त्री को बाह्य
क्षेत्र, आराम (खेत, बगीचा इत्यादि) एवं आभ्यन्तर गृहकृत्य इत्यादि दोनोंको भी
ज्ञान नहीं रहता । उस क्षण के पूर्व एवं पश्चात् तो बाह्य-अभ्यन्तर विषयक
ज्ञान रहता है ।
जाग्रत एवं स्वप्नकाल में भी वृत्ति जिस परिमाण में स्थिर, अन्तर्मुखी रहती
है, अनुभूत आनन्द के आधिक्य भी तदनुसार होता है । इसी क्रम से मनुष्यलोक में
एक श्रोत्रिय, निष्पाप एवं अकामहत पुरुष मनुष्यगन्धर्वानन्द से लेकर
हिरण्यगर्भानन्द तक का अनुभव करने में समर्थ है । शोत्रियत्व एवं निष्पाप होना
समान होनेपर भी केवलमात्र निस्पृहता धर्म ही वैराग्य की उत्कर्ष-अपकर्ष अनुसार
आनन्द-तारतम्य के प्रति साधन कहा गया ।
भिन्न-भिन्न उर्ध्वलोक अथवा दिव्यदेह में भोगतृष्णा जितना क्षीण होती है, उतना
आनन्द का आधिक्य होता है । सारे उर्ध्वलोकों में जितना आनन्द है, वह मनुष्यलोक
में केवलमात्र वासनात्याग द्वारा ही एक निष्काम पुरुष प्राप्त होता है । उनके
लिए आनन्दप्राप्ति के लिए उर्ध्वलोक में गमन निष्प्रयोजन है -
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम् ।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ।।
~ महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय १७३, श्लोक ४२
इहलोक में कामोपभोगजनित सुख एवं दिव्य लोकों में जो महत्सुख है, ये
तृष्णाक्षयजनित सुखके सोलहवें अंशके समान भी नहीं है ।
सुखाद्याकार वृत्ति को चाहे अविद्यावृत्ति माना जाय ~ ( विवरणकारादि के
मतानुसार) अथवा अन्तःकरणवृत्ति माना जाय ~ ( गौड़ब्रह्मानंदीकारादि के
मतानुसार) - वृत्तिमात्र ही सर्वथा सीमित होती है । इसलिए वृत्तिप्रतिबिंबित
आनन्द भी सीमित है । सीमित वस्तु में न्यूनता-आधिक्य होना संभव है । वृत्ति की
व्याप्ति, स्थिरता एवं स्वच्छता के तारतम्यवशतः हिरण्यगर्भानन्द तक
भिन्न-भिन्न लोकोंमें अनुभूत तत्-तत् वृत्ति-प्रतिबिंबित आनन्दविशेष भी
न्यून्यता-आधिक्य की उपपत्ति हो जाती है ।
किन्तु करोड़ों जन्मों के योगजपुण्यजात निर्विशेष ब्रह्मविषयक अखण्डाकार वृत्ति
से अज्ञानावरण पूर्णतः नाश होनेपर देश-काल-वस्तु द्वारा अनवच्छिन्न एवं
अज्ञानावरण का लेशमात्रविहीन जो एकरस स्वरुपानन्द शेष रहता है, उस अनन्त आनन्द
की तुलना में अन्य किसी भी आनन्द वस्तुतः आनन्दाभासमात्र ही है । वह स्वप्रकाश
आनन्द स्वाभाविक है, साधनसापेक्ष नहीं ! जाग्रत एवं स्वप्न में अनुभूत सुख,
दुःख इत्यादि का अधिष्ठान है !
प्रश्न होता है - शृंगाररसादि लौकिक रस एवं भक्तिरस - दोनों में ही
प्रतिबिंबित आनन्द है, शृंगाररसादि भी तो परमानन्दरूप बोध होता है । फिर
भजनानन्द में प्रयत्न क्यों करे ?
इसका उत्तर भक्तिरसायनकार देते है - कान्तादि विषयावच्छिन्न चैतन्य ही
द्रवीभूत हुई मनोवृत्तिमें आरूढ़ होनेसे संस्कार / वासना होकर रसत्वको प्राप्त
होता है । इसलिए लौकिकरस के भी परमानन्दरूप होनेमें कोई अनुपपत्ति नहीं है ।
अन्तर यह है कि अनवच्छिन्न चिदानन्दघन भगवानकी ही प्रतीति होनेसे भक्तिरसमें
आनन्द अत्यधिक होता है, किन्तु लौकिकरस में विषयावच्छिन्न चिदानन्दका ही
स्फुरण होता है । इसलिए उसमें आनन्द कम रहता है । तथा भगवद्विषयक आसक्तिसे
चित्त पूर्णरूपसे द्रवित हो जाता है, किन्तु सांसारिक विषयों से सामान्य रूप
से उनमें शिथिलतामात्र आती है, द्रवता नहीं ।
प्रश्न होता है - चैतन्य ही आनन्दस्वरुप है तो घटादि ज्ञानकाल में तदाकार में
आकारित वृत्ति में चैतन्य प्रतिबिंबित होनेसे उस समय आनंद का स्फुरण क्यों
नहीं होता ?
पञ्चदशीकार कहते है - दीपक उष्ण एवं प्रकाशस्वरुप होनेपर भी प्रकाश गृहमध्य
में सर्वत्र अनुभूत होता है, उष्णता नहीं । पुण्यकर्मजन्य समाधि अवस्था में
सात्त्विक वृत्ति का उदय होनेपर उसमें चैतन्य एवं आनन्द के एकत्व का अनुभव
होता है, क्योंकि सात्विक वृत्ति स्वच्छ होती है ।
जैसे नमक मिलाने से इमली का फल का खट्टापन तिरोहित हो जाता है, वैसे जाग्रतकाल
में राजसी वृत्ति की मलिनतावशतः केवल चैतन्यांश का भान होता है, आनन्दांश
तिरोहित हो जाता है है ।
अथवा, वृत्तिद्वय के मध्यवर्ती काल में आनन्दांश का सामान्यतः स्फुरण होता है,
तथा वृत्ति द्वारा उसका विशेषतः स्फुरण होता है । जैसे दर्पण चंचल होनेसे
उसमें केवल आकारमात्र प्रतिबिंबित होता है, किन्तु शोभांश प्रतिबिंबित नहीं
होता ; जैसे चित्त आकुलित होनेपर जैसे नेत्र समीपस्थ दृश्यवस्तु का भान नहीं
होता, वैसे राजसी एवं तामसी वृत्ति की अस्थिरतावशतः उसमें केवलमात्र चैतन्यांश
का विशेषतः स्फुरण होता है, आनन्दांश प्रतिबिंबित नहीं होता । इसलिए आनन्दांश
का विशेषतः स्फुरण नहीं होता ।
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