[Advaita-l] A post in FB in Hindi on Rama's apparent sufferings

V Subrahmanian v.subrahmanian at gmail.com
Sat Apr 13 12:56:52 EDT 2019


Post by Sri Smartha Rahul:

न च मायाया आश्रयं प्रत्यव्यामोहकत्वं नियतम् , विष्णोः स्वाश्रितमाययैव
रामावतारे मोहितत्वात् । "

~ विवरणप्रमेयसंग्रहः, सूत्र १, वर्णक १ (अध्यासविचार)

ऐसा भी कोई नियम नहीं कि माया अपने आश्रयको व्यामोहित नहीं करती, क्योंकि
विष्णु अपनी माया से ही रामावतार में मोहित हुए थे, यह देखा गया -

" असंभवं हेममृगस्य जन्म तथापि रामो लुलुभे मृगाय । " ~ हितोपदेश

किन्तु यदि ईश्वर भी जीव की तरह माया से व्यामोहित होते हैं , तो जीव और ईश्वर
में क्या भेद रहेगा ?

इसका उत्तर भगवान् शंकराचार्य ने सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसङ्ग्रहः में देते
हुए कहा -

तस्मादावृतिविक्षेपौ किञ्चित्कर्तुं न शक्नुतः।
स्वयमेव स्वतन्त्रोऽसौ तत्प्रवृत्तिनिरोधयोः ॥

~ सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसङ्ग्रहः, ५०६

आवरणशक्ति एवं विक्षेपशक्ति ईश्वरमें अपना कुछ भी फल नहीं कर सकती, परन्तु
ईश्वर ही इन दोनों शक्तियों की प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के विषय में स्वतन्त्र
हैं ।

यही ईश्वर एवं जीव में महान् वैलक्षण्य हैं । गीता में श्रीभगवान् ने स्वयं
कहा -

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ~ गीता ४.६

सिद्धान्तलेशसंग्रहकारका कहना हैं कि #ब्राह्मणों_द्वारा_दिए_गए_
शापोंमें_अमोघत्व
<https://www.facebook.com/hashtag/%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A3%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%8F_%E0%A4%97%E0%A4%8F_%E0%A4%B6%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82_%E0%A4%85%E0%A4%AE%E0%A5%8B%E0%A4%98%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B5?epa=HASHTAG>
आदि
स्वकृत मर्यादाके प्रतिपालनके लिए और किसी प्रकारसे भृगुऋषिके शापादिके
सत्यत्वप्रख्यापनके लिए नटके समान वह केवल अभिनयमात्र करता हैं, इसके सूचनके
लिए ही रामादि अवतारोंमें अज्ञानका कथन हैं, वस्तुतः नहीं -

" आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् । "

~ वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड, सर्ग १२०, श्लोक १२

राज्याद्भ्रंशो वने वासः सीता नष्टा हतो द्विजः |
ईदृशीयं ममालक्ष्मीर्निर्दहेदपि पावकम् ||

~ वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड, सर्ग ६७, श्लोक २४

न मद्विधो दुष्कृतकर्मकारी मन्ये द्वितीयोस्ति वसुंधरायाम् ||

~ वाल्मीकि रामायण, अरण्यकाण्ड, सर्ग ६३, श्लोक ३

ईश्वरने संसारके निर्माणके समय इसकी ठीक-ठीक व्यवस्था रहे इसलिए मर्यादा बनायी
हैं, जैसे ब्राह्मणोंके शापमें अवन्धत्व आदि । उस मर्यादाका परिपालन करनेके
लिए स्वयं ईश्वरावतार भी लोकमें अनुग्रहवशतः वैसा ही आचरण करता हैं जिससे
मर्यादाका भंग न हो । यदि ऐसा न माना जाय, तो उस परमात्मामें नित्यमुक्तत्व,
निरवग्रहस्वातन्त्र्य, एवं सम और अभ्यधिकके राहित्य आदिका जो श्रुतिने
प्रतिपादन किया हैं, उसका विरोध हो जायगा ।

शंका :- यदि श्रीरामचन्द्रका दुःखभोग प्रारब्धके कारण माना जाय, तो -

अवश्यंभाविभावानां प्रतीकारो भवेद्यदि ।
तदा दुःखैर्न लिप्येरन् नलरामयुधिष्ठिराः ॥

प्रारब्ध का फल अनिवार्य हैं एवं ईश्वर भी प्रारब्ध परिहारमें असमर्थ हो तो
ईश्वरका ईश्वरभाव नष्ट होता हैं ।

उत्तर :- इससे उनका ईश्वरत्वमें कोई हानि नहीं हैं, क्योंकि -

न चेश्वरत्वमीशस्य हीयते तावता यतः ।
अवश्यंभाविताऽप्येषामीश्वरेणैव निर्मिता ॥

~ पञ्चदशी, तृप्तिदीपप्रकरण, श्लोक १५६-१५७

इन दुःखों की आवश्यंभाविता भी ईश्वरकर्तृक विहित हुआ हैं ।

|| जय श्री राम ||


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