[Advaita-l] A post in Hindi on Advaita, avidya, anaadi...
V Subrahmanian
v.subrahmanian at gmail.com
Sat Feb 16 22:07:46 EST 2019
================ भेदवादी-मुखमर्दन ================
आक्षेप :- प्रश्न उठता है कि यदि शक्ति कल्पित है तो उसकी कल्पना किसने की ?
यदि कहें कि शक्ति तो अनादि कल्पितहै, इसलिए उसकी कल्पना किसने की यह प्रश्न
ही नहीं उठता । तो यह उत्तरभी ठीक नहीं । क्योंकि जब यह पूँछा जाता कि कब
कल्पना की तब यह उत्तर ठीक होता । कल्पित वस्तु चाहे सादि हो या अनादि कल्पक
के विना हो नहीं सकती । यदि शक्ति अनादि कल्पित है तो अनादि कल्पक भी होना ही
चाहिए । ब्रह्मभिन्न सब सादि तथा कल्पित होनेसे कल्पक नहीं हो सकते । इसलिए
अनादि ब्रह्मको ही कल्पक मानना होगा । जबकि ब्रह्म कल्पनाशक्तिसे युक्क्त ही
है तो उसे सर्वथा शक्तिरहित नहीं कहा जा सकताहै । श्रुति तो ब्रह्ममें शक्ति
ज्ञान बल को स्वाभाविक ही कहती है ।
" परास्यशक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च " ~ (श्वे.६-८) ।
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उत्तर :- यह सब वैचारिक उत्पात मचाने का उद्येश्य से किया गया व्यर्थ
पिष्टपेषणमात्र है, इसलिए अधिक विस्तार से उत्तर देना पुनरुक्ति होगी |
ब्रह्मभिन्न सब सादि है यह कहना इस भेदवादी की अज्ञता को ही दर्शाता है,
क्योंकि सिद्धान्तपक्ष में - शुद्धचैतन्य, अविद्या, अविद्या-चित्सम्बंध,
ईश्वर, जीव, इन पाँचों में परस्पर भेद - यह षट्पदार्थ अनादि मान्य है |
अनादि वस्तु की कर्ता होना संभव नहीं और कर्ता की सिद्धि होनेपर वस्तु सादि
सिद्ध होता है | अतः यहाँ ' #कल्पक ' पद का अभिप्राय #कल्पनाकर्ता से नहीं,
अपितु #द्रष्टा / #साक्षी से है | बिना साक्षी के अविद्या सिद्ध नहीं होती |
इसलिए अनादि अविद्या के साक्षी, अधिष्ठान इत्यादि को लेकर प्रश्नोत्तर हो सकता
है |
स्वप्रकाश शुद्धचैतन्य सर्वप्रकाशक है | अविद्या की साक्षी शुद्धचैतन्य (
मतान्तर से अविद्यागत चिदाभासरूप ईश्वर ) ; तथा अविद्या का अधिष्ठान
शुद्धचैतन्य (मतान्तर से जीव) है |
दर्शनकर्ता ही द्रष्टा होनेसे द्रष्टा / साक्षी में भी कर्तृत्व सिद्ध होता है
-
शुद्धचैतन्य स्वरूपतः साक्षी नहीं है, उनका साक्षित्व अस्मदादिदृष्टि से है,
औपचारिक है | मुख में बिम्ब-प्रतिबिम्बरूप भेद स्वरूपतः न होनेपर भी दर्पणगत
प्रतिबिम्ब की अपेक्षा से उसमें बिम्बत्व की उपपत्ति होती है |
द्रष्टाका अर्थ है दर्शनानुकूलकृतिमान | ज्ञान कृतिजन्य नहीं, प्रमाणजन्य होता
है | दर्शनका साधन नेत्रोन्मीलनादि यदि दर्शन कहे तो लक्षणा होगी | दुसरी बात,
परमेश्वरको ज्ञानके लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता | नित्यज्ञानवान् ईश्वर है |
जन्यदर्शन माना जाये तो भी संकल्पजन्य है, प्रयत्नजन्य नहीं |
ज्ञानस्वरुप ब्रह्म अविद्या का अधिष्ठान कैसे हो सकता है, जैसे सूर्य में
अंधकार नहीं रहता -
यह आपत्ति निःसार है, क्योंकि सिद्धान्त में अविद्या ज्ञानाभाव नहीं बल्कि
अभाव-विलक्षणत्वेन भावरूप सत्ताविशेष मान्य है |
तथापि कोई कुतर्क करे तो हम पूछते है कि क्या उल्लूक को सूर्य में अन्धकार
नहीं दीखता ? यदि कहे कि वह तो इन्द्रियदोषजन्य है, वास्तविक नहीं - तो यहाँ
ब्रह्म में अज्ञान भी वास्तविक नहीं है, अज्ञान को लेकर प्रश्न अज्ञानदोषजन्य
ही है |
असंग शुद्धचैतन्य में आश्रयता कैसे संभव है -
इसका उत्तर यही है कि आश्रयतारूप सम्बन्ध आध्यासिक है | अनादि होनेसे यद्यपि
यह कल्पित आश्रयता अविद्याजन्य नहीं कहा जा सकता, तथापि अविद्याप्रयुक्त
होनेके कारण त्रिकलाबाध्यत्वविरहत्वेन मिथ्या / अनिर्वचनीय है |
' अहमज्ञ ' प्रतीति से तो अहंकार ही अज्ञान का अधिष्ठान सिद्ध होता है -
इसका उत्तर यह है कि शुद्धचैतन्य के साथ अन्तःकरण का तादात्म्याध्यास होनेसे
शुद्धचैतन्य में अध्यस्त अविद्या भ्रान्ति से अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य में
अध्यस्त सा प्रतीत होता है | अज्ञान एवं अन्तःकरण दोनों का मूल अधिष्ठान एक
होनेके कारण ऐसी भ्रान्ति होती है |
वाचस्पति मिश्र ने तो जीवाश्रिता अविद्या कहा अर्थात् अविद्या का अधिष्ठान जीव
है -
वस्तुतः पूर्वोक्त मत के साथ भामतीकार के मत का समन्वय करते हुए कल्पतरुकार
श्री अमलानन्द ने कहा - ब्रह्माश्रित जीव एवं जीवाश्रिता अविद्या होनेसे
ब्रह्माश्रिता अविद्या ही सिद्ध होता है | शुक्तिरजतस्थल में भी रजत का
अधिष्ठान शुक्त्यवच्छिन्न चैतन्य अर्थात् ब्रह्म ही सिद्ध होता है |
कारण का आश्रय कार्य होना संभव न होनेसे अविद्याकार्य जीव अविद्या का आश्रय
नहीं हो सकता -
अनादिपदार्थोंमें उपरोक्त शंका नहीं हो सकती | मिथ्यात्वरूप से अनादिसिद्ध
होनेसे अनादि भी ज्ञाननिवर्त्य होता है |
अविद्यावान ही जीव है | इसलिए वह अविद्याश्रय होनेसे आत्माश्रय दोष होता है,
तथा अनादित्वरूप से परिहार भी जन्य-जनकभाव को लेकर ही होगा -
इसका उत्तर है कि जीव में अविद्या वैसे ही है जैसे घट में घटत्व | घटत्ववान
में घटत्व है अथवा घटत्वाभाववान में ? क्या उत्तर ? वही यहाँ है |
श्रुति तो ब्रह्ममें शक्ति ज्ञान बल को स्वाभाविक ही कहती है, औपाधिक नहीं :
#परास्यशक्तिर्विविधैव_श्रूयते_स्वाभाविकी_ज्ञान_बल_क्रिया_च
~ (श्वे.६-८)।
इसकी धज्जियाँ पहले ही उड़ायी गयी है अद्वैतसिद्धि, गौड़ब्रह्मानन्दी इत्यादि
ग्रंथों में - यहाँ द्रष्टव्य :
https://www.facebook.com/rahul.advaitin/posts/1562748433800794
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