[Advaita-l] A post in Hindi on Advaita
V Subrahmanian
v.subrahmanian at gmail.com
Wed Jan 9 13:07:57 EST 2019
Rahul has penned the above post in FB.
पूर्वपक्ष :- श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीतोपदेश किया । ईश्वरका प्रतिबिम्ब जीव
है । अपने प्रतिबिम्ब को पागल भी उपदेश नहीं करेगा !
उत्तरपक्ष :- प्रतिबिम्बवाद की प्रक्रिया में जीव शुद्धचैतन्य का प्रतिबिम्ब
माना जाता है , कृष्ण का नहीं ।
यहाँ ऐसी प्रक्रिया हैं - जीव , ईश्वर और जगत्के विभागसे शून्य शुद्ध चैतन्य
में अध्यस्त अनादि अविद्या सत्त्वगुणकी प्रधानता होनेसे, स्वच्छ दर्पण जैसे
मुखका प्रतिबिम्ब ग्रहण करता हैं, वैसे ही, चैतन्यका आभास ग्रहण करती हैं ।
उसीसे उपाधिके दोषसे अलिप्त बिम्बस्थानीय परमेश्वर और उपाधिके दोषसे लिप्त
प्रतिबिम्बस्थानीय जीव होते हैं । तथा ईश्वरसे जीवके भोगके लिये आकाशादि
क्रमसे शरीर और इन्द्रियोंका संघात और उसका भोग्य सारा प्रपंच उत्पन्न होता
हैं - ऐसी कल्पना होती हैं । बिम्ब और प्रतिबिम्बभूत मुखमें जैसे मुख अनुगत
हैं, उसी प्रकार ईश्वर और जीवमें अनुगत मायोपाधिक चैतन्य उसका साक्षी माना
जाता हैं । उसीके द्वारा उसमें कल्पित माया और उसका सारा कार्य प्रकाशित होता
हैं । यद्यपि अविद्यासे प्रतिबिम्ब जीव तो एक ही हैं, तथापि अविद्यान्तर्गत
अन्तःकरणोंके संस्कार भिन्न-भिन्न होनेसे उनके भेदसे अंतःकरणोपाधिक उस जीवका
भी भेद होता हैं ।
यद्यपि दर्पणमें पड़ा हुआ चैत्रका प्रतिबिम्ब अपने या दुसरे किसी को भी नहीं
जानता क्योंकि उसमें केवल अचेतन अंश ही प्रतिफलित होता हैं, तथापि चैतन्यका
प्रतिबिम्ब चिद्रूप होनेके कारण यह अपनेको और दुसरे को भी जानता हैं, क्योंकि
प्रतिबिम्बवादकी दृष्टिसे तो बिम्बचैतन्य ही की केवल उपाधिमें स्थितरूपसे
कल्पना की गयी हैं ।
ईश्वरका प्रतिबिम्ब जीव है - इस पक्ष में भी निराकारशुद्धसत्त्वोपाधिक ईश्वर
निराकार ही है । उस ईश्वरका मायाप्रयुक्तलीलाविग्रहविशेषविशिष्टरूप या
अवताररूप कृष्ण उससे किंचित् न्यूनसत्ताक है । भागवतादि शास्त्रों में भी
नारायण एवं नारायणावतार कृष्ण में स्वरूपतः अभेद एवं अनिर्वचनीय भेद स्वीकृत
है ।
वस्तुतः भाष्यकार ने " अतएव चोपमा सूर्यकादिवत् " ~ ब्रह्मसूत्र ३.२.१८
सूत्रभाष्यमें सूर्यप्रतिबिम्बका दृष्टान्तमात्र बताया ।
सर्वव्यापी निराकार चैतन्य का वास्तविक प्रतिबिम्ब तैत्तिरीयभाष्य में नहीं
स्वीकार किये -
// जलसूर्यकादिप्रतिबिम्बवत् प्रवेशः स्यादिति चेत् , न ;
अपरिच्छिन्नत्वादमूर्तत्वाच्च । परिच्छिन्नस्य मूर्तस्यान्यस्य अन्यत्र
प्रसादस्वभावके जलादौ सूर्यकादिप्रतिबिम्बोदयः स्यात् , न त्वात्मनः ;
अमूर्तत्वात् , आकाशादिकारणस्य आत्मनः व्यापकत्वात् ।
तद्विप्रकृष्टदेशप्रतिबिम्बाधारवस्त्वन्तराभावाच्च प्रतिबिम्बवत्प्रवेशो न
युक्तः । //
~ तैत्तिरीयभाष्य २.६.१
प्रतिबिम्बसत्यपक्षमें उपाधिस्थत्व, द्वित्वादि भेद काल्पनिक है एवं
उपाधिविशिष्टत्वेन रूपेण ही भेद मान्य है । इस पक्ष में ब्रह्म और जीव में
मुख्यसमानाधिकरण मान्य है ।
और आभासवाद पक्ष में चिदाभास मिथ्या होनेसे स्वनाश पुरुषार्थ न होनेके कारण
शुद्धचैतन्य, चिदाभास एवं उपाधि इन तीनोंके परस्पर तादात्म्यपन्नरूप ही जीव है
। अतएव मूलसे अनादिसिद्ध भेद है । इस पक्ष में ब्रह्म और जीव में
बाधसमानाधिकरण मान्य है ।
अतः अंततः लघुभूत पक्ष प्रथमोक्त ही है । समझनेका तरीकामात्र भिन्न-भिन्न है ।
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