[Advaita-l] An FB post in Hindi on the 'Clay-pot illusion' by Dr. Smarth Rahul
V Subrahmanian
v.subrahmanian at gmail.com
Sun Sep 29 12:37:51 EDT 2024
डॉ स्मार्त राहुल is with Natraj Maneshinde and
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मृद्घटभ्रम विचार :-
============== पञ्चदशी रामकृष्णभाष्य से ==============
शंका :- शुक्तिरजत भ्रमस्थल में शुक्तिज्ञान से रजतविषयक सत्यताबुद्धिमात्र का
नाश नहीं होती, अपितु रजतस्वरूप की अप्रतीति भी होती है । किन्तु
मृत्तिकाज्ञानमात्र से घट तिरोहित नहीं होता । अतः जैसे रजत शुक्ति का विवर्त
है, वैसे घट को मृत्तिका का विवर्त नहीं मान सकते ।
समाधान :- शुक्तिरजत या रज्जुसर्पादि निरुपाधिकभ्रम है अर्थात् केवलमात्र
अधिष्ठानाज्ञानजन्य है ।
किन्तु घटभ्रम सोपाधिक है अर्थात् विलक्षण-निमित्तरूप उपाधिसहित
अधिष्ठानाज्ञानजन्य भ्रम । जैसे जल अथवा दर्पणरूप उपाधि की सान्निध्यवशतः
मुखप्रतिबिंब में मुखभ्रम अथवा जलाशय में तीरस्थित पुरुष या वृक्ष की
अधोमुखताभ्रम, भूगोलोक की संबंधवशतः आकाश की कटाहतलाकारताभ्रम, आकाश में
नीलिमाभ्रम इत्यादि । सोपाधिक अध्यास उपाधिसहित अधिष्ठान का अज्ञानजन्य होता
है, केवलमात्र अधिष्ठानाज्ञानजन्य नहीं ।
यद्यपि रज्जुसर्पादि भ्रम स्थल में रज्जु आदि की समानाकार सर्पादि ज्ञानों की
संस्कार, प्रमाणगत दोष, प्रमेयगत दोष, रज्जु आदि के सामान्यांश विषयक ज्ञान
अर्थात् इदंताज्ञान रज्जु के विशेष-अंश विषयक अज्ञान की सहकारी होनेसे
उपाधिरूप ही है, तथापि सोपाधिक भ्रम स्थल में ऐसी उपाधि विवक्षित नहीं ।
निमित्तकारण दो प्रकार के होते है -
१. कार्यकालव्यावृत्ति : निमित्तकारण जब तक सन्निहित रहते है तब तक कार्य रहते
है, अन्यथा नहीं । जैसे दीवार में सूर्यरश्मि प्रतिफलित सूर्यप्रतिबिंबरूप
कार्य में दर्पण, जलपात्रादिरूप उपाधियों की सन्निधान ही निमित्तकारण है ।
उक्त स्थल में दर्पण, जलपात्रादि-सान्निध्यरूप निमित्तकारण
कार्यकालव्यावृत्तिरूप है । अर्थात् जब तक निमित्तकारण विद्यमान रहता है, तब
तक कार्य रहता है, अन्यथा नहीं ।
२. कार्यकालपूर्ववृत्ति : ऐसा निमित्तकारण जो कार्योत्पत्ति तक विद्यमान रहता
है, किन्तु कार्य उत्पन्न होनेके बाद नहीं । जैसे कुलाल के दण्डचक्रादि घटरूप
कार्य के पूर्वकाल तक ही रहते है, घटस्थितिकाल में नहीं ।
जलाशयतीरस्थित पुरुष के अधोमुखतादिरूप अध्यास में कार्यकालवृत्तिरूप
निमित्तकारण को ही उपाधि कहते है । इसलिए रज्जुसर्पादिभ्रम और मृद्घटभ्रम
एकजातीय नहीं ।
निरुपाधिक भ्रमस्थल में अधिष्ठानज्ञानद्वारा कार्यसहित आवरण-विक्षेपोत्पादक
शक्तिद्वययुक्त अज्ञान का नाश एवं बाध उभय संपन्न होता है ।
सोपाधिक भ्रमस्थल में अधिष्ठानज्ञानद्वारा अज्ञान की आवरणशक्तिमात्र का नाश और
बाध होता है, किन्तु अज्ञान की उपाधिरूप प्रारब्ध प्रतिबंधक विद्यमान होनेसे
विक्षेपरूप कार्य सहित विक्षेपोत्पादक शक्ति का नाश अथवा स्वरूप का अभाव नहीं
होता । केवल बाध अर्थात् मिथ्यात्वनिश्चय होता है और वह दग्ध वस्त्र जैसा या
दग्ध बीज जैसा कुछ काल तक प्रतीत होता है ।
इसलिए सोपाधिक भ्रमस्थल में अधिष्ठानावशेषता या आरोपित स्वरूप का अभाव को बाध
का लक्षण नहीं कहा जाता, अपितु उसका मिथ्यात्वनिश्चय या त्रैकालिक अभाव निश्चय
करना ही बाधरूपनिवृत्ति लक्षण कहा गया ।
इसी तरह मृत्तिका में घट्भ्रमस्थल में, सुवर्ण में कुण्डलभ्रम स्थल में,
अहंकारादि बद्धभ्रांति स्थलों में सोपाधिकत्व है, क्योंकि उक्त स्थलों में
दण्ड-चक्रादि का भ्रामण, हथोड़ाघात एवं प्रारब्धभोगरूप उपाधियाँ विद्यमान हैं
। अतः इन स्थलों में मिथ्यात्वनिश्चयरूप लक्षणविशिष्ट निवृत्ति ही मानी जाती
है, स्वरूपाभावरूप निवृत्ति नहीं । और अधिष्ठान के सत्यतानिश्चय ही
अधिष्ठानावशेषता है ।
शंका :- घटनाश होनेपर मृत्तिका नहीं बन जाता, क्योंकि घट टूटने पर भी कपाल
दीखते है । इससे यह कहना असंगत है कि घट के पूर्वरूप मिट्टी निवृत्त नहीं होते
। दूध से दही बनने में भी दुग्धरूप का त्याग पाया जाता है । अतः मृद्घट को
विवर्त दृष्टांत नहीं मान सकते ।
समाधान :- कपाल को चूर्ण करनेपर वह मिट्टी रूप में देखा ही जाता है । कुण्डल
के उदाहरण में तो कुण्डल टूट जाने पर उसका स्वर्णरूप अति स्पष्ट दीखता ही है ।
इससे यही सिद्ध होता है कि मृद्घट और स्वर्णकुण्डल दोनों दृष्टांतों में
कार्यों अपना पूर्वरूप मिट्टी और सुवर्ण का परित्याग किए बिना ही प्रकट होते
है ।
किन्तु आरोपित वस्तु को असत्य जान लेने मात्र से पुरुषार्थसिद्धि नहीं होती ?
इसका समाधान में पञ्चदशीकार कहते है -
ईदृग्बोधे पुमर्थत्वं मतमद्वैतवादिनाम् ।
मृद्रूपस्यापरित्यागाद्विवर्तत्वं घटे स्थितम् ॥
~ पञ्चदशी, अध्याय १३, श्लोक ४६
अद्वैतवादियों के लिए आरोपित वस्तु की असत्यतामात्र जान लेने से ही
पुरुषार्थसिद्धि हो जाती है । मृत्तिकारूप परित्यक्त न होनेसे ही घट मृत्तिका
का विवर्त सिद्ध होता है ।
वस्तुतः अद्वैतवाद में आत्मानन्द भिन्न सभी वस्तुयों की मिथ्यात्वसिद्धि होने
पर अद्वितीय आत्मानन्द का प्रकाशरूप पुरुषार्थसिद्धि होती है ।
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