[Advaita-l] Skanda upasana in the Mahabharata
V Subrahmanian
v.subrahmanian at gmail.com
Sat Mar 20 08:33:08 EDT 2021
On an earlier occasion we had seen that the Valmiki Ramayana speaks about
the Skanda upasana and the attaining of the Skanda Saalokya as fruit
thereof. In the Mahabharata too there is such a statement:
महाभारतम्-03-आरण्यकपर्व-233
https://sa.wikisource.org/s/215
In this chapter is described the birth of Skanda and a stuti addressed to
him:
The stuti praises Skanda as Para Brahman with such epithets as 'sahasra
shira, sahasra paat, sahasra netra, sarva vyaapi, being the para and apara,
being the Kaala, Time. At the end of the stuti it is stated:
धनमायुर्यशो दीप्तं पुत्राञ्शत्रुजयं तथा।
स पुष्टितुष्टी संप्राप्य *स्कन्दसालोक्यमाप्नुयात् ।*।
*मार्कण्डेय उवाच।* 3-233-10x
स्तोष्यामि देवैर्ऋषिभिश्च जुष्टं
शक्त्या गुहंनामभिरप्रमेयम्।
षडाननं शक्तिधरं सुवीरं
निबोध चैतानि कुरुप्रवीर ।। 3-233-10a
3-233-10b
3-233-10c
3-233-10d
ब्रह्मण्यो वै ब्रहमजो ब्रह्मविच्च
ब्रह्मेशयो ब्रह्मवतांवरिष्ठः।
ब्रह्मप्रियो ब्राह्मणसर्वमन्त्री
त्वं ब्रह्मणां ब्राह्मणानांच नेता ।। 3-233-11a
3-233-11b
3-233-11c
3-233-11d
स्वाहा स्वधा त्वं परमं पवित्रं
मन्त्रस्तुतस्त्वं प्रथितः षडर्चिः।
संवत्सरस्त्वमृतवश्च षड्वै
मासार्धमासाश्च दिनं दिशश्च ।। 3-233-12a
3-233-12b
3-233-12c
3-233-12d
त्वं पुष्कराक्षस्त्वरविन्दवक्रः
सहस्रचक्षोसि सहस्रबाहुः।
त्वं लोकपालः परमं हविश्च
त्वं भावनः सर्वसुरासुराणाम् ।। 3-233-13a
3-233-13b
3-233-13c
3-233-13d
त्वमेव सेनाधिपतिः प्रचण्डः
प्रभुर्विभुश्चाप्यथ शक्रजेता।
सहस्रपात्त्वं धरणी त्वमेव
सहस्रतुष्टिश्च सहस्रभुक्व ।। 3-233-14a
3-233-14b
3-233-14c
3-233-14d
सहस्रशीर्षस्त्वमनन्तरूपः।
सहस्रपात्त्वं दशशक्तिधारी।
गङ्गासुतस्त्वं स्वमतेन देव
स्वाहामहीकृत्तिकानां तथैव ।। 3-233-15a
3-233-15b
3-233-15c
3-233-15d
त्वं क्रीडसे षण्मुख कुक्कुटेन
यथेष्टनानाविधकामरूपी।
दीक्षाऽसि सोमो मरुतः सदैव
धर्मोऽसि वायुरचलेन्द्र इन्द्रः ।। 3-233-16a
3-233-16b
3-233-16c
3-233-16d
सनातनानामपि शाश्वतस्त्वं
प्रभुः प्रभूणामपि चोग्रधन्वा।
ऋतस्य कर्ता दितिजान्तकस्त्वं
जता रिपूणां प्रवरः सुराणाम् ।। 3-233-17a
3-233-17b
3-233-17c
3-233-17d
सूक्ष्मं तपस्तत्परमं त्वमेव
परावरज्ञोसि परावरस्त्वम्।
धर्मस्य कामस्य परस्य चैव
त्वत्तेजसा कृत्स्नमिदं महात्मन् ।। 3-233-18a
3-233-18b
3-233-18c
3-233-18d
व्याप्तं जगत्सर्वसुरप्रवीर
शक्त्या मया संस्तुत लोकनाथ।
नमोस्तु ते द्वादशनेत्रबाहो
अतः परं वेद्मि गतिं न तेऽहम् ।। 3-233-19a
3-233-19b
3-233-19c
3-233-19d
स्कन्दस्य य इदं विप्रः पठेज्जन्म समाहितः।
श्रावयेद्ब्राह्मणेभ्यो यः शृणुयाद्वा द्विजेरितम् ।। 3-233-20a
3-233-20b
धनमायुर्यशो दीप्तं पुत्राञ्शत्रुजयं तथा।
स पुष्टितुष्टी संप्राप्य स्कन्दसालोक्यमाप्नुयात् ।। 3-233-21a
3-233-21b
।। इति श्रीमन्महाभारते अरण्यपर्वणि
मार्कण्डेयसमास्यापर्वणि त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।। 233 ।।
Om Tat Sat
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